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Parle-G का छोटा पैकेट पिछले 30 सालो से 5 रूपए में कैसे मिल रहा है?

Parle- G इतना फेमस और सस्ता कैसे ?

Parle-G नाम तो सुना ही होगा| ज़माना बदल गया, लेकिन ये बिस्किट आजादी के पहले जैसा था। आज आजादी के 76 साल बाद भी वैसा ही है। वहीं टेस्ट और वही क्वालिटी।जबकि इसमें इस्तेमाल होने वाले मटेरियल ,मजदूरी , मशीनरी और ट्रांस्पोर्टेशन कॉस्ट 10 गुना तक महंगे हो गए। लेकिन पिछले 30 सालों से इसका छोटा पैकेट सिर्फ ₹5 का ही मिलता है। एक बार 50 पैसे दाम बढ़ाने की कोशिश भी हुई, लेकिन उसके खिलाफ़ लोग सड़कों पर उतर गए और आज यह इंडिया में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा बेचा जाने वाला बिस्किट Parle-G  है।

लेकिन हैरानी की बात है कि इतना सस्ता Parle-G बिस्किट बेचकर भी कंपनी लॉस में नहीं बल्कि प्रॉफिट में हैं। साल 2013 में जहाँ कंपनी का रेवेन्यू 5000 करोड़ था वो आज 16,000 करोड़ को भी क्रॉस कर चुका है और ऐसा होने के पीछे कंपनी की एक सोंची समझी स्ट्रेटजी है। आज बात करेंगे शुरुआत से लेकर अभी तक की पूरी जर्नी के बारे में। Parle-G कंपनी की कहानी शुरू होती है

Parle-G की शुरुआत कब और कैसे हुई-

आज़ादी से पहले जब मार्केट में विदेशी चीजें खूब महंगे दामों पर बेची जाती थी, बिस्किट्स और टॉफी जैसी छोटी चीजें भी इतनी महंगी थीं कि सिर्फ अंग्रेज ही उसका इस्तेमाल कर पाते थे और यह बात मुंबई के एक व्यापारी मोहन लाल दयाल जी को हमेशा खटकती थी।

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उस समय अंग्रेजों से आजादी के लिए देश में कई तरह के आन्दोलन चल रहे थे और गाँधी जी के असहयोग आंदोलन से मोहन लाल इतने इंप्रेस हुए कि अपने देश में ही कॉन्फेक्शनरी का बिज़नेस शुरू करने का फैसला किया ताकि अंग्रेजों को आर्थिक चोट तो लगे ही साथ ही हमारे देश के गरीब लोग भी सस्ते दाम पर टॉफीऔर बिस्किट्स मिल सकें।

लेकिन ये बिज़नेस उनके लिए बिल्कुल नया था इसलिए कॉन्फेक्शनरी के बिज़नेस को समझने के लिए वो जर्मनी गए। वहाँ जाकर टॉफी बनाने की तकनीक सीखें और जब इंडिया वापस आने लगे तो अपने साथ एक टॉफी बनाने वाली मशीन भी खरीदकर ले आएं।

साल था 1929 मोहन लाल दयाल जी मुंबई के विले पार्ले में एक पुरानी फैक्टरी को खरीदकर उसमें जर्मनी से लाई हुई टॉफी बनाने वाली मशीन इंस्टॉल करा देते हैं और अपनी फैमिली के ही 12 लोगों के साथ मिलकर टॉफी बनाना शुरू करते हैं। काम करने की इतनी जल्दबाजी थी कि कंपनी के नाम के बारे में कुछ सोचा ही नहीं और जब कोई नाम समझ में नहीं आया

तो उस जगह के नाम पर ही अपनी कंपनी का नाम Parle रख दिए और इस तरह पारले कंपनी के विशाल बिज़नेस एम्पायर की शुरुआत हुई।

Parle कंपनी का पहला प्रॉडक्ट था ओरेंज कैंडी। हालांकि उसके बाद भी कई और तरह के टॉफिया बनायी गयी जिसने मार्केट में बहुत ही तेजी से अपनी जगह बनाई क्योंकि यह देसी स्वाद में बनाया गया भारत का पहला कॉन्फेक्शनरी प्रॉडक्ट था।

Parle बिस्किट बनाना कब शुरू किया-

उस समय अंग्रेज अपनी चाय के साथ इम्पोर्टेड बिस्किट खाया करते थे। इसलिए मोहन लाल जी ने सोचा कि क्यों ना इंडियन्स के लिए भी टॉफी की तरह बिस्किट्स भी इंडिया में ही बनाया जाए और साल 1939 में उन्होंने Parle Gluco बिस्किट बनाना शुरू कर दिया।

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गेहूं से बनाया बिस्किट इतने कम दाम का था कि गरीब लोग भी इसे खरीद सकते थे और इसका सिर्फ दाम ही कम नहीं था। बल्कि टेस्ट में भी यह बिस्किट काफी अच्छा था। इसलिए देखते ही देखते यह  इंडियन मार्केट में इतना तेजी से पॉपुलर हुआ कि अंग्रेज भी Parle Gluco बिस्किट को यूज़ करने लगे और मार्केट में मौजूद ब्रिटिश ब्रैंड के बिस्किट्स भी पीछे होने लगे।

यहाँ तक की सेकंड वर्ल्ड वॉर के दौरान ब्रिटिश इंडियन आर्मी ने भी Parle Gluco  का खूब इस्तेमाल किया, जिससे यह कंपनी अच्छे प्रॉफिट में आ गई।

लेकिन वार जैसे ही खत्म हुआ देश में गेहूं की कमी होने लगी। 1947 में अंग्रेजों से आजादी और उसके बाद देश के विभाजन ने इस  गेहू क्राइसिस को और भी ज्यादा बढ़ा दिया। पार्ले को इतना भी कच्चा माल नहीं मिल पा रहा था की वो प्रोडक्शन को जारी रख पाए। मजबूरन कंपनी को कुछ दिनों के लिए बंद करना पड़ा।

लेकिन जब फिर से हालात कुछ बेहतर हुए और पारले ने बिस्किट्स का प्रोडक्शन शुरू किया तो कई दूसरे ब्रैंड्स के भी ग्लूकोज बिस्किट मार्केट में बिकने लगे थे।

Parle-G नाम कैसे पड़ा- 

हर कोई अपने बिस्किट के नाम के पीछे ग्लूको या ग्लूकोज का इस्तेमाल करने लगे। ग्राहक कन्फ्यूज होने लगे और पारले बिस्किट की बिक्री पर भी काफी बुरा असर पड़ने लगा। लेकिन प्रॉब्लम ये थी कि ग्लूकोस कॉमन वर्ड होने की वजह से उसका कॉपी राइट नहीं मिल सकता था।

Parle ने भीड़ से अलग और प्रीमियम देखने के लिए दो स्ट्रैटिजी पर काम किया। सबसे पहले तो उसने अपनी नॉर्मल पैकेजिंग को चेंज करके एक पीले वैक्स पेपर का इस्तेमाल करना शुरू किया और जहाँ पैकेट पर पहले गाय  की फोटो हुआ करती थी, उसकी जगह लाल रंग के Parle ब्रैंडिंग के साथ एक छोटी सी लड़की की तस्वीर को छापा जाने लगा।

हालांकि ये तस्वीर एक काल्पनिक पिक्चर थी, जिसे एवरेस्ट ब्रैन्डस सॉल्यूशन्स ने तैयार किया था और उनकी दूसरी स्ट्रैटिजी की बात कर रहे हैं

तो साल 1982 में उन्होंने पार्ले ग्लूको का नाम बदलकर Parle-G कर दिया जहाँ G- ग्लूकोज को रिप्रजेंट करती थी, लेकिन आगे चलकर कवर पर जो छोटी लड़की थी, उसी को अपना ब्रैंड ऐंबैसडर बनाकर और G फॉर जीनियस के मैसेज के साथ टीवी पर ज़ोर शोर से एडवर्टाइज करना शुरू कर दिया और पार्लेजी रेस में इतना आगे निकलता चला गया कि बाकी कंपनीस के लिए उसके आसपास भी पहुंचना मुश्किल हो गया।

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दोस्तों 1990 में पहली बार पारले-जी का प्राइस ₹5 किया गया और आज 30 साल बाद भी उसका प्राइस ₹5 ही है। लेकिन ऐसा नहीं है कि कंपनी ने दाम बढ़ाने की कोशिश नहीं की। एक बार तो सिर्फ 50 पैसे दाम बढ़ाने की जब कोशिश हुई थी

तब सब लोग सड़क पर उतरकर विरोध करने लगे। तो ऐसे में सवाल ये उठता है कि कोई कंपनी भला अपने प्रॉडक्ट का प्राइस इतने लंबे समय तक वही कैसे रख सकती है?

इसे समझने के लिए Parle की बिज़नेस स्ट्रैटेजी को समझना जरूरी है। अब लोगों के प्रोटेस्ट ने तो ये साबित कर दिया था कि Parle-G  अब देश का बिस्किट बन चुका है और गरीब से लेकर आमिर तक हर कोई इंसान इसको पसंद करने लगा है। बस इसी बात से कंपनी ने पार्लेजी बिस्किट को प्रॉफिट के लिए नहीं बल्कि इसलिए बेचा जाने लगा ताकि अपनी पॉपुलैरिटी और कम कीमत की वजह से पार्लेजी हर दुकान हर घर  के लोगों के बीच नजर आता रहे हैं, जिससे कि कंपनी की ब्रैंड अवेर्नेस बनी रहे।

लेकिन बिना प्रॉफिट के सिर्फ अवेर्नेस से तो कंपनी चल नहीं सकती। इसलिए Parle  ब्रैंड के अंदर धीरे धीरे MONACO, HIDE&SEEK, KRACK JACK जैसे हाइ प्रॉफिट प्रोडक्ट्स को भी लॉन्च किया गया और इस तरह कंपनी जो प्रॉफिट Parle-G से नहीं कमा पाती वो इन प्रोडक्ट्स से कमा लेती है।

लेकिन यह स्ट्रैटिजी भी ज्यादा दिन तक काम नहीं कर सकती थी क्योंकि कंपनी के टोटल सेल्स में Parle-G का कॉन्ट्रिब्यूशन 50% से भी ज्यादा का है और महंगाई की वजह से Parle-G बिस्किट का प्रोडक्शन कॉस्ट काफी तेजी से बढ़ने लगा, लेकिन मुसीबत ये थी कि दाम तो बढ़ा नहीं सकते थे।

इसलिए दाम को ₹5 पर ही फिक्स रखते हुए कंपनी ने पैकेट के साइज को छोटा करना शुरू कर दिया। 90 के दशक में जो पार्लेजी ₹5 में 100 ग्राम के पैक में मिला करती थी, आज ₹5 में सिर्फ 55 ग्राम का पैकेट मिलता है।  लेकिन लोगों को एहसास तक नहीं हुआ। इसके अलावा भी पार्ले ने कुछ बुनियादी चीजों पर इतनी बारीकी से ध्यान दिया कि उनका प्रोडक्शन कॉस्ट अपने कॉम्पिटिटर से हमेशा कम रहा है। जैसे की वो रॉ मटिरियल्स काफी सस्ते रेट पर सीधे उस के सोर्सेज से सही खरीदते हैं जिससे कि बीच के मीडिएटर का कमिशन खत्म हो जाता है।

दोस्तों आप तो जानते ही हैं। कॉन्फेक्शनरी और फूड इंडस्ट्री में वेस्टेज एक बड़ी प्रॉब्लम है, लेकिन एक बहुत ही अच्छी बात ये भी है कि Parle का वेस्टेज ना के बराबर है। आपको जानकर हैरानी होगी कि पारले जी का 115 टन बिस्कुट बनाने में सिर्फ 1% का वेस्टेज होता है।

Parle को जब ये रियलाइज हुआ कि उनके कस्टमर्स काफी प्राइस सेंसिटिव है तो उसने अपने ब्रांडिंग और पैकेजिंग जैसी चीजों पर होने वाले खर्च को जितना हो सकता था, उतना कम कर दिया। यही वजह है कि पहले जहाँ पार्लेजी बिस्किट वैक्स पेपर की प्रीमियम पैकेजिंग में आती थी, आज वो एक सस्ती प्लास्टिक पैकेजिंग में आने लगी है।

सन 2003 में Parle-G  को दुनिया में सबसे ज्यादा बेचा जाने वाला बिस्किट घोषित किया गया और जैसे जैसे वक्त बीतता गया, Parle-G  एक साम्राज्य की तरह हो गया। लोगों की जरूरतों के हिसाब से हर साइज के पैकेट का ऑप्शन मार्केट में रखा गया।

बिस्किट की सक्सेस का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि अपने 130 से भी ज्यादा फ़ैक्ट्रीज़ के जरिए यह हर महीने 100 करोड़  पैकेट का प्रोडक्शन करते हैं। देश के 50 से 55 लाख से भी ज्यादा रिटेल स्टोर्स के जरिए Parle-G बिस्किट को बेचा जाता है |  इंडिया के अलावा दुनिया के 7 और कन्ट्रीज में भी इनके मैन्युफैक्चरिंग प्लांट हैं।

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Anoop Kumar
Anoop Kumarhttp://centric24.com
नमस्कार दोस्तो मेरा नाम अनूप कुमार है मैं Centric24.com का लेखक हूं|

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